poems on life in hindi — जिंदगी पर लिखी गयी कुछ ऐसी कविताये Poems on life in hindi जो आपको जीना सिखाएंगी

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11 min readNov 26, 2020

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Poems on Zindagi in hindi

दोस्तों जिंदगी एक ऐसी पहेली जिसे सुलझाने काम तो सभी करते हैं पर इसे समझने का काम कोई नहीं करता हैं। दोस्तों आज के इस पोस्ट में आपके लिए लाये हैं जिंदगी पर लिखी गयी कुछ ऐसी कविताये Poems on life in hindiजो आपको जीना सिखाएंगी , जीवन में संघर्ष करना सिखाएंगी ,और जिंदगी के विभिन्न पहलुओं को आपके सामने रखेंगी ( Poems on life in hindi ).

Best Poems on life in hindi

जीवन की ही जय हो

मैथिलीशरण गुप्त

मृषा मृत्यु का भय है

जीवन की ही जय है ।

जीव की जड़ जमा रहा है

नित नव वैभव कमा रहा है

यह आत्मा अक्षय है

जीवन की ही जय है।

नया जन्म ही जग पाता है

मरण मूढ़-सा रह जाता है

एक बीज सौ उपजाता है

सृष्टा बड़ा सदय है

जीवन की ही जय है।

जीवन पर सौ बार मरूँ मैं

क्या इस धन को गाड़ धरूँ मैं

यदि न उचित उपयोग करूँ मैं

तो फिर महाप्रलय है

जीवन की ही जय है।

Best Poems on life in hindi

क़दम मिला कर चलना होगा

अटल बिहारी वाजपेयी

बाधाएँ आती हैं आएँ

घिरें प्रलय की घोर घटाएँ,

पावों के नीचे अंगारे,

सिर पर बरसें यदि ज्वालाएँ,

निज हाथों में हँसते-हँसते,

आग लगाकर जलना होगा।

क़दम मिलाकर चलना होगा।

हास्य-रूदन में, तूफ़ानों में,

अगर असंख्यक बलिदानों में,

उद्यानों में, वीरानों में,

अपमानों में, सम्मानों में,

उन्नत मस्तक, उभरा सीना,

पीड़ाओं में पलना होगा।

क़दम मिलाकर चलना होगा।

उजियारे में, अंधकार में,

कल कहार में, बीच धार में,

घोर घृणा में, पूत प्यार में,

क्षणिक जीत में, दीर्घ हार में,

जीवन के शत-शत आकर्षक,

अरमानों को ढलना होगा।

क़दम मिलाकर चलना होगा।

सम्मुख फैला अगर ध्येय पथ,

प्रगति चिरंतन कैसा इति अब,

सुस्मित हर्षित कैसा श्रम श्लथ,

असफल, सफल समान मनोरथ,

सब कुछ देकर कुछ न मांगते,

पावस बनकर ढलना होगा।

क़दम मिलाकर चलना होगा।

कुछ काँटों से सज्जित जीवन,

प्रखर प्यार से वंचित यौवन,

नीरवता से मुखरित मधुबन,

परहित अर्पित अपना तन-मन,

जीवन को शत-शत आहुति में,

जलना होगा, गलना होगा।

क़दम मिलाकर चलना होगा।

जीवन की ढलने लगी साँझ

अटल बिहारी वाजपेयी

जीवन की ढलने लगी सांझ

उमर घट गई

डगर कट गई

जीवन की ढलने लगी सांझ।

बदले हैं अर्थ

शब्द हुए व्यर्थ

शान्ति बिना खुशियाँ हैं बांझ।

सपनों में मीत

बिखरा संगीत

ठिठक रहे पांव और झिझक रही झांझ।

जीवन की ढलने लगी सांझ।

आओ फिर से दिया जलाएँ

अटल बिहारी वाजपेयी

आओ फिर से दिया जलाएँ

भरी दुपहरी में अँधियारा

सूरज परछाई से हारा

अंतरतम का नेह निचोड़ें-

बुझी हुई बाती सुलगाएँ।

आओ फिर से दिया जलाएँ

हम पड़ाव को समझे मंज़िल

लक्ष्य हुआ आँखों से ओझल

वर्त्तमान के मोहजाल में-

आने वाला कल न भुलाएँ।

आओ फिर से दिया जलाएँ।

आहुति बाकी यज्ञ अधूरा

अपनों के विघ्नों ने घेरा

अंतिम जय का वज़्र बनाने-

नव दधीचि हड्डियाँ गलाएँ।

आओ फिर से दिया जलाएँ

Poems on life in hindi

अटल बिहारी वाजपेयी

ठन गई!

मौत से ठन गई!

जूझने का मेरा इरादा न था,

मोड़ पर मिलेंगे इसका वादा न था,

रास्ता रोक कर वह खड़ी हो गई,

यों लगा ज़िन्दगी से बड़ी हो गई।

मौत की उमर क्या है? दो पल भी नहीं,

ज़िन्दगी सिलसिला, आज कल की नहीं।

मैं जी भर जिया, मैं मन से मरूँ,

लौटकर आऊँगा, कूच से क्यों डरूँ?

तू दबे पाँव, चोरी-छिपे से न आ,

सामने वार कर फिर मुझे आज़मा।

मौत से बेख़बर, ज़िन्दगी का सफ़र,

शाम हर सुरमई, रात बंसी का स्वर।

बात ऐसी नहीं कि कोई ग़म ही नहीं,

दर्द अपने-पराए कुछ कम भी नहीं।

प्यार इतना परायों से मुझको मिला,

न अपनों से बाक़ी हैं कोई गिला।

हर चुनौती से दो हाथ मैंने किये,

आंधियों में जलाए हैं बुझते दिए।

आज झकझोरता तेज़ तूफ़ान है,

नाव भँवरों की बाँहों में मेहमान है।

पार पाने का क़ायम मगर हौसला,

देख तेवर तूफ़ाँ का, तेवरी तन गई।

मौत से ठन गई।

सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”

वह आता —

दो टूक कलेजे को करता, पछताता

पथ पर आता।

पेट पीठ दोनों मिलकर हैं एक,

चल रहा लकुटिया टेक,

मुट्ठी भर दाने को — भूख मिटाने को

मुँह फटी पुरानी झोली का फैलाता -

दो टूक कलेजे के करता पछताता पथ पर आता।

साथ दो बच्चे भी हैं सदा हाथ फैलाए,

बाएँ से वे मलते हुए पेट को चलते,

और दाहिना दया दृष्टि-पाने की ओर बढ़ाए।

भूख से सूख ओठ जब जाते

दाता-भाग्य विधाता से क्या पाते?

घूँट आँसुओं के पीकर रह जाते।

चाट रहे जूठी पत्तल वे सभी सड़क पर खड़े हुए,

और झपट लेने को उनसे कुत्ते भी हैं अड़े हुए !

ठहरो ! अहो मेरे हृदय में है अमृत, मैं सींच दूँगा

अभिमन्यु जैसे हो सकोगे तुम

तुम्हारे दुख मैं अपने हृदय में खींच लूँगा।

Poems on life in hindi

अभी न होगा मेरा अन्त

सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”

अभी न होगा मेरा अन्त

अभी-अभी ही तो आया है

मेरे वन में मृदुल वसन्त-

अभी न होगा मेरा अन्त

हरे-हरे ये पात,

डालियाँ, कलियाँ कोमल गात!

मैं ही अपना स्वप्न-मृदुल-कर

फेरूँगा निद्रित कलियों पर

जगा एक प्रत्यूष मनोहर

पुष्प-पुष्प से तन्द्रालस लालसा खींच लूँगा मैं,

अपने नवजीवन का अमृत सहर्ष सींच दूँगा मैं,

द्वार दिखा दूँगा फिर उनको

है मेरे वे जहाँ अनन्त-

अभी न होगा मेरा अन्त।

मेरे जीवन का यह है जब प्रथम चरण,

इसमें कहाँ मृत्यु?

है जीवन ही जीवन

अभी पड़ा है आगे सारा यौवन

स्वर्ण-किरण कल्लोलों पर बहता रे, बालक-मन,

मेरे ही अविकसित राग से

विकसित होगा बन्धु, दिगन्त;

अभी न होगा मेरा अन्त।

जीना हो तो मरने से नहीं डरो रे

रामधारी सिंह “दिनकर”

वैराग्य छोड़ बाँहों की विभा सम्भालो,

चट्टानों की छाती से दूध निकालो,

है रुकी जहाँ भी धार, शिलाएँ तोड़ो,

पीयूष चन्द्रमाओं का पकड़ निचोड़ो ।

चढ़ तुँग शैल शिखरों पर सोम पियो रे !

योगियों नहीं विजयी के सदृश जियो रे !

जब कुपित काल धीरता त्याग जलता है,

चिनगी बन फूलों का पराग जलता है,

सौन्दर्य बोध बन नई आग जलता है,

ऊँचा उठकर कामार्त्त राग जलता है ।

अम्बर पर अपनी विभा प्रबुद्ध करो रे !

गरजे कृशानु तब कँचन शुद्ध करो रे !

जिनकी बाँहें बलमयी ललाट अरुण है,

भामिनी वही तरुणी, नर वही तरुण है,

है वही प्रेम जिसकी तरँग उच्छल है,

वारुणी धार में मिश्रित जहाँ गरल है ।

उद्दाम प्रीति बलिदान बीज बोती है,

तलवार प्रेम से और तेज होती है !

छोड़ो मत अपनी आन, सीस कट जाए,

मत झुको अनय पर भले व्योम फट जाए,

दो बार नहीं यमराज कण्ठ धरता है,

मरता है जो एक ही बार मरता है ।

तुम स्वयं मृत्यु के मुख पर चरण धरो रे !

जीना हो तो मरने से नहीं डरो रे !

स्वातन्त्रय जाति की लगन व्यक्ति की धुन है,

बाहरी वस्तु यह नहीं भीतरी गुण है !

वीरत्व छोड़ पर का मत चरण गहो रे

जो पड़े आन खुद ही सब आग सहो रे!

जब कभी अहम पर नियति चोट देती है,

कुछ चीज़ अहम से बड़ी जन्म लेती है,

नर पर जब भी भीषण विपत्ति आती है,

वह उसे और दुर्धुर्ष बना जाती है ।

चोटें खाकर बिफरो, कुछ अधिक तनो रे !

धधको स्फुलिंग में बढ़ अंगार बनो रे !

उद्देश्य जन्म का नहीं कीर्ति या धन है,

सुख नहीं धर्म भी नहीं, न तो दर्शन है,

विज्ञान ज्ञान बल नहीं, न तो चिन्तन है,

जीवन का अन्तिम ध्येय स्वयं जीवन है ।

सबसे स्वतन्त्र रस जो भी अनघ पिएगा !

पूरा जीवन केवल वह वीर जिएगा !

चलना हमारा काम है

शिवमंगल सिंह ‘सुमन’

गति प्रबल पैरों में भरी

फिर क्यों रहूं दर दर खडा

जब आज मेरे सामने

है रास्ता इतना पडा

जब तक न मंजिल पा सकूँ,

तब तक मुझे न विराम है,

चलना हमारा काम है।

कुछ कह लिया, कुछ सुन लिया

कुछ बोझ अपना बँट गया

अच्छा हुआ, तुम मिल गई

कुछ रास्ता ही कट गया

क्या राह में परिचय कहूँ,

राही हमारा नाम है,

चलना हमारा काम है।

जीवन अपूर्ण लिए हुए

पाता कभी खोता कभी

आशा निराशा से घिरा,

हँसता कभी रोता कभी

गति-मति न हो अवरूद्ध,

इसका ध्यान आठो याम है,

चलना हमारा काम है।

इस विशद विश्व-प्रहार में

किसको नहीं बहना पडा

सुख-दुख हमारी ही तरह,

किसको नहीं सहना पडा

फिर व्यर्थ क्यों कहता फिरूँ,

मुझ पर विधाता वाम है,

चलना हमारा काम है।

मैं पूर्णता की खोज में

दर-दर भटकता ही रहा

प्रत्येक पग पर कुछ न कुछ

रोडा अटकता ही रहा

निराशा क्यों मुझे?

जीवन इसी का नाम है,

चलना हमारा काम है।

साथ में चलते रहे

कुछ बीच ही से फिर गए

गति न जीवन की रूकी

जो गिर गए सो गिर गए

रहे हर दम,

उसी की सफलता अभिराम है,

चलना हमारा काम है।

फकत यह जानता

जो मिट गया वह जी गया

मूंदकर पलकें सहज

दो घूँट हँसकर पी गया

सुधा-मिक्ष्रित गरल,

वह साकिया का जाम है,

चलना हमारा काम है।

Poems on life in hindi

काँटे मत बोओ

रामेश्वर शुक्ल ‘अंचल’

यदि फूल नहीं बो सकते तो, काँटे कम से कम मत बोओ।

है अगम चेतना की घाटी, कमज़ोर बड़ा मानव का मन,

ममता की शीतल छाया में, होता कटुता का स्वयं शमन।

ज्वालाएँ जब घुल जाती हैं, खुल-खुल जाते हैं मुँदे नयन,

होकर निर्मलता में प्रशांत बहता प्राणों का क्षुब्ध पवन।

संकट में यदि मुस्का न सको, भय से कातर हो मत रोओ।

यदि फूल नहीं बो सकते तो, काँटे कम से कम मत बोओ।

हर सपने पर विश्वास करो, लो लगा चाँदनी का चंदन,

मत याद करो, मत सोचो, ज्वाला में कैसे बीता जीवन।

इस दुनिया की है रीत यही — सहता है तन, बहता है मन,

सुख की अभिमानी मदिरा में, जो जाग सका वह है चेतन।

इसमें तुम जाग नहीं सकते, तो सेज बिछाकर मत सोओ।

यदि फूल नहीं बो सकते तो, काँटे कम से कम मत बोओ।

पग — पग पर शोर मचाने से, मन में संकल्प नहीं जगता,

अनसुना — अचीन्हा करने से, संकट का वेग नहीं थमता।

संशय के सूक्ष्म कुहासों में, विश्वास नहीं क्षण भर रमता,

बादल के घेरों में भी तो, जयघोष न मारुत का थमता।

यदि बढ़ न सको विश्वासों पर, साँसों के मुर्दे मत ढ़ोओ।

यदि फूल नहीं बो सकते तो, काँटे कम से कम मत बोओ

Poems on life in hindi

रामेश्वर शुक्ल ‘अंचल’

रात अभी आधी बाकी है

मत बुझना मेरे दीपक मन

चाँद चाँदनी की मुरझाई

छिपा चाँद यौवन का तुममें

आयु रागिनी भी अकुलाती

रह रहकर बिछुड़न के भ्रम में

जलते रहे स्नेह के क्षण ये

जीवन सम्मुख है ध्रुवतारा

तुम बुझने का नाम लेना

जब तक जीवन में अँधियारा

अपने को पीकर जीना है

हो कितना भी सूनापन

रात अभी आधी बाकी है

मत बुझना मेरे दीपक मन

तुमने विरहाकुल संध्या की

भर दी माँग अरुणिमा देकर

तम के घिरे बादलों को भी

राह दिखाई तुमने जलकर

तुम जाग्रत सपनों के साथी

स्तब्ध निशा को सोने देना

धन्य हो रहा है मेरा विश्वास

तुम्ही से पूजित होकर

जलती बाती मुक्त कहाती

दाह बना कब किसको बंधन

रात अभी आधी बाकी है

मत बुझना मेरे दीपक मन

Poems on life in hindi

मैं तुम लोगों से दूर हूँ

गजानन माधव मुक्तिबोध

मैं तुम लोगों से इतना दूर हूँ

तुम्हारी प्रेरणाओं से मेरी प्रेरणा इतनी भिन्न है

कि जो तुम्हारे लिए विष है, मेरे लिए अन्न है।

मेरी असंग स्थिति में चलता-फिरता साथ है,

अकेले में साहचर्य का हाथ है,

उनका जो तुम्हारे द्वारा गर्हित हैं

किन्तु वे मेरी व्याकुल आत्मा में बिम्बित हैं, पुरस्कृत हैं

इसीलिए, तुम्हारा मुझ पर सतत आघात है !!

सबके सामने और अकेले में।

( मेरे रक्त-भरे महाकाव्यों के पन्ने उड़ते हैं

तुम्हारे-हमारे इस सारे झमेले में )

असफलता का धूल-कचरा ओढ़े हूँ

इसलिए कि वह चक्करदार ज़ीनों पर मिलती है

छल-छद्म धन की

किन्तु मैं सीधी-सादी पटरी-पटरी दौड़ा हूँ

जीवन की।

फिर भी मैं अपनी सार्थकता से खिन्न हूँ

विष से अप्रसन्न हूँ

इसलिए कि जो है उससे बेहतर चाहिए

पूरी दुनिया साफ़ करन के लिए मेहतर चाहिए

वह मेहतर मैं हो नहीं पाता

पर , रोज़ कोई भीतर चिल्लाता है

कि कोई काम बुरा नहीं

बशर्ते कि आदमी खरा हो

फिर भी मैं उस ओर अपने को ढो नहीं पाता।

रिफ्रिजरेटरों, विटैमिनों, रेडियोग्रेमों के बाहर की

गतियों की दुनिया में

मेरी वह भूखी बच्ची मुनिया है शून्यों में

पेटों की आँतों में न्यूनों की पीड़ा है

छाती के कोषों में रहितों की व्रीड़ा है

शून्यों से घिरी हुई पीड़ा ही सत्य है

शेष सब अवास्तव अयथार्थ मिथ्या है भ्रम है

सत्य केवल एक जो कि

दुःखों का क्रम है

मैं कनफटा हूँ हेठा हूँ

शेव्रलेट-डॉज के नीचे मैं लेटा हूँ

तेलिया लिबास में पुरज़े सुधारता हूँ

तुम्हारी आज्ञाएँ ढोता हूँ।

Poems on life in hindi

नरेन्द्र शर्मा

जब तक मन में दुर्बलता है

दुख से दुख, सुख से ममता है।

पर सदा न रहता जग में सुख

रहता सदा न जीवन में दुख।

छाया-से माया-से दोनों

आने-जाने हैं ये सुख-दुख।

मन भरता मन, पर क्या इनसे

आत्मा का अभाव भरता है!

बहुत नाज था अपने सुख पर

पर न टिका दो दिन सुख-वैभव,

दुख? दुख को भी समझा सागर

एक बूँद भी नहीं रहा अब!

देखा जब दिन-रात चीड़-वन

नित कराह आहें भरता है!

मैंने दुख-कातर हो-होकर

जब-जब दर-दर कर फैलाया,

सुख के अभिलाषी मन मेरे

तब-तब सदा निरादर पाया।

ठोकर खा-खाकर पाया है

दुख का कारण कायरता है।

सुख भी नश्वर, दुख भी नश्वर

यद्यपि सुख-दुख सबके साथी,

कौन घुले फिर सोच-फिकर में

आज घड़ी क्या है, कल क्या थी।

देख तोड़ सीमायें अपनी

जोगी नित निर्भय रमता है।

जब तक तन है, आधि-व्याधि है

जब तक मन, सुख दुख है घेरे;

तू निर्बल तो क्रीत भृत्य है,

तू चाहे ये तेरे चेरे।

तू इनसे पानी भरवा, भर

ज्ञान कूप, तुझमें क्षमता है।

सुख दुख के पिंजर में बंदी

कीर धुन रहा सिर बेचारा,

सुख दुख के दो तीर चीर कर

बहती नित गंगा की धारा।

तेरा जी चाहे जो बन ले,

तू अपना करता-हरता है।

Poems on life in hindi

जीवन की ही जय हो

मैथिलीशरण गुप्त

मृषा मृत्यु का भय है

जीवन की ही जय है ।

जीव की जड़ जमा रहा है

नित नव वैभव कमा रहा है

यह आत्मा अक्षय है

जीवन की ही जय है।

नया जन्म ही जग पाता है

मरण मूढ़-सा रह जाता है

एक बीज सौ उपजाता है

सृष्टा बड़ा सदय है

जीवन की ही जय है।

जीवन पर सौ बार मरूँ मैं

क्या इस धन को गाड़ धरूँ मैं

यदि न उचित उपयोग करूँ मैं

तो फिर महाप्रलय है

जीवन की ही जय है।

Poems on life in hindi

नर हो, न निराश करो मन को

मैथिलीशरण गुप्त

नर हो, न निराश करो मन को

कुछ काम करो, कुछ काम करो

जग में रह कर कुछ नाम करो

यह जन्म हुआ किस अर्थ अहो

समझो जिसमें यह व्यर्थ न हो

कुछ तो उपयुक्त करो तन को

नर हो, न निराश करो मन को।

संभलो कि सुयोग न जाय चला

कब व्यर्थ हुआ सदुपाय भला

समझो जग को न निरा सपना

पथ आप प्रशस्त करो अपना

अखिलेश्वर है अवलंबन को

नर हो, न निराश करो मन को।

जब प्राप्त तुम्हें सब तत्त्व यहाँ

फिर जा सकता वह सत्त्व कहाँ

तुम स्वत्त्व सुधा रस पान करो

उठके अमरत्व विधान करो

दवरूप रहो भव कानन को

नर हो न निराश करो मन को।

निज गौरव का नित ज्ञान रहे

हम भी कुछ हैं यह ध्यान रहे

मरणोंत्‍तर गुंजित गान रहे

सब जाय अभी पर मान रहे

कुछ हो न तजो निज साधन को

नर हो, न निराश करो मन को।

प्रभु ने तुमको कर दान किए

सब वांछित वस्तु विधान किए

तुम प्राप्‍त करो उनको न अहो

फिर है यह किसका दोष कहो

समझो न अलभ्य किसी धन को

नर हो, न निराश करो मन को।

किस गौरव के तुम योग्य नहीं

कब कौन तुम्हें सुख भोग्य नहीं

जन हो तुम भी जगदीश्वर के

सब है जिसके अपने घर के

फिर दुर्लभ क्या उसके जन को

नर हो, न निराश करो मन को।

करके विधि वाद न खेद करो

निज लक्ष्य निरन्तर भेद करो

बनता बस उद्‌यम ही विधि है

मिलती जिससे सुख की निधि है

समझो धिक् निष्क्रिय जीवन को

नर हो, न निराश करो मन को

कुछ काम करो, कुछ काम करो।

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